गुरू पूर्णिमा आत्मचेतना का सर्वोत्तम त्यौहार – बाबा राम बालक दास

बालोद-गुरू पूर्णिमा आध्यात्म जगत का महत्वपूर्ण उत्सव है। गुरू ही शिष्य का मार्गदर्शन कर उसे ऊर्जामय बनाकर ईश्वर की ओर उन्मुख करते हैं। गुरू बिना न आत्म दर्शन होता है और न परमात्म दर्शन। भवसागर पार करने में गुरू नाविक की भूमिका निभाते हैं। गुरू हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक तथा विघ्नविनाशक होते हैं।
पाटेश्वरधाम के आनलाईन सतसंग में गुरू पूर्णिमा के महत्व पर प्रकाश डालते हुये बाबा रामबालकदास ने कहा कि यह आत्मबोध की प्रेरणा का त्यौहार है। गुरू परमात्मा और संसार के बीच तथा शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं। गुरूओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिये सैकड़ों साल बाद भी संसार में प्रसिद्ध हैं। जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी अमृत का सिंचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे वही गुरू है। बाबा जी ने कहा यह जरूरी नहीं कि हम किसी व्यक्ति को ही गुरू बनायें। भगवान श्री कृष्ण को जगतगुरू कहा गया है कृष्णं वंदे जगतगुरूम्। महाभारत युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया। संपूर्ण शास्त्रों का निचोड़, उपनिषदों का सार, दर्शन साहित्य का मूल अर्जुन के माध्यम से कृष्ण ने गीता में दिया। कृष्ण ही शास्वत गुरू हैं। माता – पिता शरीर को जन्म अवश्य देते हैं किंतु सत्य जन्म गुरू से होता है जिसे श्रेष्ठ जन्म कहा गया है।
पुरूषोत्तम अग्रवाल की जिज्ञासा गुरू दीक्षा क्यों आवश्यक पर प्रकाश डालते हुये बाबा जी ने कहा कि गुरू की कृपा और शिष्य की श्रद्धा रूपी दो पवित्र धाराओं का संगम ही दीक्षा है। गुरू के आत्मदान और शिष्य के आत्मसमर्पण से ही दीक्षा संपन्न होती है। जिसके मुख में गुरूमंत्र है उसके सब कार्य सिद्ध होते हैं। दीक्षा के माध्यम से शिष्य रूपी सामान्य पौधे पर गुरू रूपी श्रेष्ठ पौधे की कलम प्राणानुदान के रूप में स्थापित कर शिष्य को अनुपम लाभ पहुॅचाया जाता है। कलम की रक्षा और विकास के लिये शिष्य को पुरूषार्थ करना पड़ता है। मनुष्य के जीवन में दीक्षा का बहुत महत्व है। जब तक दीक्षा नहीं होगी सिद्धि का मार्ग अवरूद्ध बना रहेगा। शास्त्रों में दीक्षा के बिना जीवन पशु तुल्य कहा गया है।

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